शिवराज सरकार के तीन बार टेंडर जारी करने के बाद भी फसल बीमा के लिए कम्पनी का चयन नहीं

किसके फ़ायदे के लिए बार बार बढ़ाई गई फसल बीमा टेंडर प्रक्रिया

भोपाल। मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार तीन बार टेंडर जारी करने के बाद भी फसल बीमा के लिए कम्पनी का चयन नहीं कर पाई है। चौथी बार आज टेंडर प्रक्रिया फिर की गई है। इसी देरी के कारण फसल बीमा के लिए आवेदन की अवधि को बढ़ाकर 31 अगस्त कर दिया गया है। दिखने में यह किसानों के फ़ायदे की बात लगती है  कि अब अधिक किसान फसल बीमा करवा पाएंगे। मगर सवाल उठ रहे है कि स्केल ऑफ फाइनेंस के कारण किसे फ़ायदा पहुँचाने के लिए सरकार ने टेंडर प्रक्रिया में देरी की? अब जब फसलें खराब हो रही हैं तब अधिक प्रीमियम राशि तय होने का ज़िम्मेदार कौन होगा? 

शिवराज सरकार ने भले ही फसल बीमा के लिए कम्पनी अब तक तय नहीं की है मगर किसानों से फसल बीमा का प्रीमियम जमा करवाया जा चुका है। प्रीमियम बैंक में जमा है और फसल खेत में खराब हो रही है। कई जगहों से सोयाबीन के अफलन की खबरें आ चुकी हैं और किसानों ने दोबारा बोवनी भी कर दी है। सरकार  फसल बीमा की कम्पनी तय नहीं कर सकी है तो किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि बीमा क्लेम कहाँ करें ?

किसान कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष केदार शंकर सिरोही बताते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कृषि मंत्री कमल पटेल के हित टकरा रहे हैं। इस कारण पहली बार टेंडर प्रकिया में इतना समय लगा है। यह प्रक्रिया पहली बार नहीं हो रही है जो समय लगना जायज़ माना जाए। हर साल की तरह इसे तय समय पर होना चाहिए था मगर तीन बार टालने के कारण टेंडर प्रक्रिया समय पर पूरी नहीं हुई और बार-बार आगे बढ़ाने पर संदेह उत्पन्न होता है।

क्यों हो रहा संदेह

कृषि विभाग के सूत्र बताते हैं कि प्राइवेट और सरकारी बीमा कम्पनियों के संघर्ष के कारण टेंडर प्रकिया बार बार अटकी है। पूरा खेल प्राइवेट कम्पनियों के मुनाफ़े और उसमें हिस्सेदाई का है। प्राइवेट कम्पनियाँ उन ज़िले में काम करना चाहती हैं जहां स्केल ऑफ फाइनेंस अधिक है। इन ज़िलों में वे सरकारी कम्पनी से भी कम प्रीमियम दर पर बीमा करने की राज़ी हो जाती हैं। जबकि जहां स्केल ऑफ फाइनेंस कम हैं वहाँ सरकारी बीमा कम्पनी ही बीमा के लिए बचती है। स्केल ऑफ फाइनेंस ज़्यादा होने पर प्रायवेट कम्पनियाँ कम प्रीमियम लेकर भी अधिक लाभ कमा लेती हैं।

क्या है स्केल ऑफ फाइनेंस का गणित

प्राइवेट कम्पनियां क्यों अधिक स्केल ऑफ फाइनेंस वाले ज़िलों में कम प्रीमियम लेकर भी जाना चाहती हैं, इसके पीछे मुनाफ़े का दिलचस्प गणित है। स्केल ऑफ फाइनेंस की गणना ज़िला स्तर पर होती है। यह वह पैमाना है जिसके आधार पर फसल का बीमा होता है और फसल बीमा की प्रीमियम तय होता है। मान लीजिए किसी ज़िले में सोयाबीन का स्केल ऑफ फाइनेंस 55 हजार है और किसी ज़िले में 27 हजार तो प्राइवेट कम्पनी सरकारी कम्पनी से कम प्रीमियम का टेंडर कर अधिक स्केल ऑफ फाइनेंस वाले ज़िले में जाना पसंद करेंगी। ऐसे ज़िले में यदि सरकारी कम्पनी 27 फ़ीसदी प्रीमियम रखती है तो प्रायवेट कम्पनी 24 प्रतिशत प्रीमियम रख कर भी 30 करोड़ से ज़्यादा का लाभ ले लेगी।

कैसे होगा प्रायवेट कम्पनी को लाभ

यदि स्केल ऑफ फाइनेंस 55 हजार है तो 24 प्रतिशत की दर से प्रति हेक्टेयर 13 हजार 200 रुपए प्रीमियम बनेगा। जबकि 27 हजार स्केल ऑफ फाइनेंस वाले ज़िले में सरकारी कम्पनी के 27 प्रतिशत की दर से प्रीमियम 7 हजार 20 रुपए ही बनेगा। इस तरह प्राइवेट कम्पनी को स्केल ऑफ फाइनेंस के कारण 6 हजार 120 रुपए का लाभ हो गया। मान लीजिए किसी ज़िले में 50 हजार हेक्टेयर का बीमा हुआ और प्राइवेट कम्पनी ने सरकारी कम्पनी की तुलना में 6 हजार रुपए ज़्यादा प्रीमियम लिया तो उसे 30 करोड़ का लाभ आसानी से हो गया।किसान कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष केदार शंकर सिरोही कहते हैं कि इसी मुनाफ़े में हिस्सेदारी के कारण नेता और कृषि विभाग के अफ़सर बीमा कम्पनियाँ तय नहीं कर पाए हैं और चौथी बार टेंडर की प्रक्रिया की गई है।