सबकी साख दाँव पर है

मोदी सरकार के तीन काले कृषि क़ानून का विरोध लगभग 48 दिनों से जारी है। पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश समेत लगभग देश के हर राज्य से किसान और उनके प्रतिनिधि दिल्ली की सीमाओं पर इस कडकडाती ठंड में मोदी सरकार से तीनों काले कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं, वहीं मोदी सरकार अहंकार के सारे कीर्तिमान तोड़ते हुए किसानों की मांग को न केवल सिरे से नकार रही है बल्कि बीजेपी नेता प्रदर्शनकारी किसानों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, आतंकवादी, विदेश प्रायोजित, मंद बुद्धी से लेकर तो न जाने क्या-क्या कह कर भड़काने का प्रयास कर रहे हैं।

एक तरफ लाखों किसान और कृषि क्षेत्र का पुस्तों का अनुभव, तो दूसरी तरफ सरकार की भस्मासुरी शक्ति और काले कृषि कानून से चंद पूंजीपतियों को देश के कृषि जगत का मालिक बनाने की सनक स्पष्ट दिखाई दे रही है। मोदी सरकार की मंशा किसानों को कमजोर कर पूंजीपतियों की चौखट पर ला खड़ा करने और फिर इन तीनों कानूनों के सहारे पूंजीपतियों को किसान की लाचारी का लाभ उठाते हुए उसके खेत और खेती पर कब्ज़ा दिलाने की है।

क्या आपने पहले कभी देखा या सुना है कि लाभ लेने वाला हर तरीके से लाभ लेने से मना कर रहा हो, और लाभ देने वाला जबरदस्ती लाभ देने की जिद पर अड़ा हो? किसानों को लाभ देने की मोदी सरकार की यह जिद ही अपने आप में यह साबित करने के लिए काफी है कि लाभ किसानों को नहीं मोदी सरकार और उसके अप्रत्यक्ष शेयर होल्डर को होने वाला है।

किसान आन्दोलन को 48 दिन हो चुके हैं, 65 से अधिक मौतें हो चुकी है। इस बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी भुज तो कभी मध्यप्रदेश के किसानों से बात करने का अभिनय करते तो देखे गए पर राजधानी की चौखट पर लगातार दम तोड़ रहे किसानों तक पहुँचने या उनसे बात करने की जहमत नहीं उठा पाए।

एक लोकतान्त्रिक देश में सरकार जनता चुनती है और जनता के द्वारा चुनी हुयी सरकार जनता के प्रति जवाबदेह भी होती है, फिर यह कैसी अहंकारी सरकार है जिसे जनता की मौतों से फर्क नहीं पड़ता या इस सरकार को किसने चुना है जो ये जनता के प्रति बिलकुल जवाबदेह नहीं है?

माननीय न्यायालय पर टिप्पणी करना उचित नहीं पर कृषि बिल के चार घोर समर्थकों को ही कृषि बिल से सम्बंधित कमेटी में जगह देकर यह साबित कर दिया गया है कि संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता भी खतरे में है। अब सवाल यह है कि क्या किसानों के लिए निष्पक्ष न्यायपालिका बची ही नहीं? या यह माना जाय कि अन्य जांच एजेंसियों की तरह संवैधानिक संस्थाओं के राजनीतिकरण का कार्य भी पूर्ण हो चूका है।

मुद्दा गंभीर है और सरकार अब भी कभी साजिश तो कभी शक्ति से समाधान निकालने की फ़िराक में दिख रही है जो लगभग नामुमकिन सा है। एक व्यक्ति या एक दल का अहंकार जब लाखों-करोड़ों नागरिकों पर भारी पड़ने लगे तो इसे लोकतंत्र की धीमी मृत्यु एवं तानाशाही की तेज शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए।